धूप-पानी सहते-सहते,
पौधे से तरूवर बना,
वक्त के तुफानों को झेला,
बरगद का दरख्त बना!
मेरे तन शाखाओं पर,
जितने पत्ते थे मुझपर पर,
सबको अपना समझा मैंने,
स्नेह से कर दिया तरबतर!
पर,जब मेरी बारी आई,
सबने छोड़ा साथ मेरा,
मैं बरगद का दरखत अकेला,
गुमसुम ठूठ-सा पड़ा रहा !
वृद्धाश्रम में जब पहुँचा,
थे मेरे जैसे कई पड़े,
सबकी आँखें पथराई-सी,
बर्फ जैसे थे जिस्म अकड़े!
मानवता पसीज रही थी,
जख्मों से रीस रही थी,
क्या ऐसे ही होते हैं जाये
खामोश जुबां यही पूछ रही थी!
क्या जुर्म है हमारा ,
दिल अपनों से पूछ रहा,
अपनों को अपना समझना,
क्या यही था कसूर मेरा!
देख अनदेखा कभी ना करना,
मोह में इस कदर ना फँसना,
हँसते जख्म ये कहते हैं,
हम जो वृद्धाश्रम में रहते हैं!
श्वेता रचित🙏🏼🙏🏼🙏🏼🙏🏼
3 टिप्पणियाँ
अद्भुत 👌🏻☺️
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
हटाएंVery touching
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